Thursday, May 23, 2013

Kahat Kabir: मेरी जीवन पर कबीर की परछाई

The Kahat Kabir series is an ode to the mystic weaver-poet and radical reformer who was equally loved and contested in his times. The most quoted poet of today, Kabir, his famous Dohas and his philosophies remain critically relevant to contemporary times. Come discover Kabir through modern music, books, films, experiences and more.

मैं द्वितीय कक्षा मैं था जब मैंने पहली बार कबीर दस के दोहों को पढ़ा . उनकी शब्दावली और शब्दों के प्रयोग से मैं बहुत प्रभावित हुआ था . उनका एक दोहा
” बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर ॥ “
तो मन्नो मेरे बचपन का नारा ही बन गया हो . हाँ तब भी पुरानी सोच से मेरी लड़ाई चलती थी . जैसे जैसे बड़े हुआ शिक्षा मैं बहुत बार उनका ज़िक्र हुआ .
मज़हब , समाज , दुनिया दारी इन सर्रे विषयों पर उनकी सोच और उस्से बयां करने का अंदाज़ बहुत अनोखा लगता था . यह तोह बचपन का दौर था .
कबीर से मेरा असली परिचय इतिहास की कक्षा मैं हुआ , जब हममे आठवी क्लास मैं भक्ति आन्दोलन के बारे मैं पढाया गया . एक ऐसा आन्दोलन जिसने
कटर धार्मिक सोच को एक प्रभावित जवाब दिया था . कठिन धारणाओं को साधारण भाषा मैं कह जाने की कला मैं माहिर हैं कबीर . उनकी सोच
पे समय का कोई प्रतिबन्ध नहीं था , वो उस युग मैं भी उतनी ही मान्यता रखती थी जितनी की आज .
मैं उस भारतीय पीढ़ी का टुकड़ा हूँ जिसने देश के भुधिजिव्यों को बहुत कम जानना है , हमारी आखें तोह विदेशी चिंतकों से ही चौंधियाई रही .
और हम भी क्या करते अंग्रेजों का 200 साल का भोझ भी तोह उतरना था . हमारी आज़ादी की लढाई के कई सिपाहियों ने कबीर के दोहों से
प्रेरणा ली . भारत की ‘ अनेकता मैं एकता ‘ की सोच ठीक वही है जिसको कबीर अपने दोहों मैं प्रचारित करते थे .
“साँई इतना दीजिए जामें कुटुंब समाय ।
मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भुखा जाय॥”
दो पंक्तियों मैं उपभोक्तावाद की परिभाषा ,उससे जुडी कठिनाई , और असका उपाय शायद ही कोई आज के युग मैं सोच पाए . बल्कि मैं
तो कल्पना करता हूँ की आज के 140 अक्षरों के युग के तोह वो . मैं एक सामाजिक कार्यकर्त्ता की भूमिका निभाते हुए जब थक जाता हूँ उनकी
दो पंक्तियों मैं बड़ा सुकून पता हूँ

(Translated text)
I was in 2nd standard when I read Kabir couplets for the first time. I was very impressed with his vocabulary and use of words.
” Bada hua to kya hua, jaise ped khajur,
Panthi ko chhaya nahi, fal laage ati dur “
This Doha has become the slogan of my childhood. Yes I was fighting with the old thing even that time.
I grew up listening to Kabir every day. His thinking was very unique on Society, religion and on various social topics.
I was actually introduced to Kabir in the 8th standard when we were taught about the “Bhakti Aandolan”, a movement which strongly influenced religious thinking during the time. He specialized in the art to enunciate difficult concepts in a simple language. There was no restriction of time on his thoughts. His belief has the same value in that era as much as it has today.
I’m a part of the generation who knows very little of our country’s great minds, our eyes only give attention to foreign thinkers. Many freedom fighters and Indian soldiers took inspiration from Kabir’s Dohe. India’s “Unity in Diversity” thinking is same as Kabir said in his couplets (Dohe).
” Sai itna dijiyejaamen kutumb samay,
Main bhi bhukha na rahun saadhu na bhukha jaaye “
In today’s era it is impossible for anyone to give definition of consumerism, its challenges and its solutions in two lines like Kabir. In today’s world of 140 characters, I am working as a social worker and when I get tired, listening to his lines gives me a sense of calm and relaxation.
Share your story of how Kabir touched your life at editor@thealternative.in. The Alternative is the official media partner of the Kabir Festival, Mumbai that is taking place between 9th and 14th January 2013.

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